लोकायुक्त मे पोस्टिंग भी मुफ्त में नहीं होती वह लोग भी धन देकर ही पुलिस से लोकायुक्त में
जेलों में अपराधियों की दुनिया में भी अपराधियों से ही वसूली करने का खेल आज से नहीं काफी लंबे समय से जेलर्स से लेकर वहां के सिपाही तक हर कदम पर किस तरह अंजाम देते हैं। इसके बारे में विस्तार से फरवरी 1999 के अपने समय माया समाचार पत्र में मैंने भोपाल में छापा था। इसके बाद में फर 2002 में इंदौर में केंद्रीय जेल में जब खन्ना वहां जेलर था तब खाने पीने के मिलने वाले खर्चे से लेकर कैदियों की कुटाई पिटाई करवा कर वसूली करने से लेकर कम उम्र के चिकने लड़के अपराधों में जेल में पहुंचते हैं उनकी शाम को बोली लगती है। समलैंगिक मैथुन के लिए जो पुराने खूंखार अपराधी उसकी बोली लेता है। रात भर उस पर बोली लेने वाले कैदी को कीमत चुका कर दूसरे कैदी अपनी यौनेच्छाएं पूरी करते हैं। उस बसूली में से वह कैदी अपना हिस्सा रखकर जो प्रहरी या जो उसको नीलाम करता है उसका हिस्सा देकर, बाकी धन अपने पास रख लेता है। जिलों की जेलों में जेलर की पदस्थापना भी बाकायदा मोटा धन लेकर की जाती है। खाने में मिलने वाले खर्चे का मात्र 10 से 20% खर्च करके 80% पैसा जेलर हजम कर जाता है। प्रहरी से लेकर मुलाकात करवाने वाला हर जेल कर्मचारी बंदियों से मुलाकात करने आने वाले लोगों से जो सामान लेकर आते हैं उनका आधा सामान आटा, दाल, चावल, घी, तेल, नमकीन, साबुन, मंजन, टूथपेस्ट, ब्लेड, शेविंग क्रीम, और आधा कैदियों तक पहुंचता है। पुरुषोत्तम सोमकुवर गांधी जैसे जेलर अरबपति थे। फिर लोकायुक्त अचानक ड्युटी बदलते समय, कभी जेल में, कभी थानों में, जिलाधीश कार्यालयों तहसील कार्यालयों, जिला पंचायत जनपद पंचायतों परिवहन विभाग में, पंजीयन, स्वास्थ्य, खनन, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, महिला बाल विकास, जिला न्यायालयों में, आदिम जाति, कृषि उद्यान की आदि में कार्यालय बंद करते समय अचानक कर्मचारियों और अधिकारियों की तलाशी क्यों नहीं लेता। जो भी धन कर्मचारियों अधिकारियों के पास अवैध रूप से इकट्ठा होता है। उसको तो वे सब को पकड़ने के लिए सक्षम है। परंतु सब जानने के बाद में भी सभी विभागों से अपने भ्रष्टाचार का हिस्सा चुपचाप लोकायुक्त कार्यालय तक पहुंच जाता है। इसलिए सब जान कर भी खुले में सब चलता रहता है। जब बिना कुछ किए ही शामिल रहा है तो कुछ करने की जरूरत ही क्या है और लोकायुक्त की पोस्टिंग भी मुफ्त में नहीं होती वह लोग भी धन देकर ही पुलिस से लोकायुक्त में आते हैं स्वाभाविक है उनको भी मोटी वसूली करनी है और नाम से ही जब पैसा मिल रहा है तो काम की जरूरत ही कहां है? फिर जो पुलिस वाले लोकायुक्त में आते हैं। वे सभी तू घोर भ्रष्ट और वसूली पास होते हैं जब पुलिस डिपार्टमेंट में उनकी बहुत ज्यादा बदनामी हो जाती है जांचें शुरू हो जाती हैं। तो ही भेज धन देकर रुको एक तुम चुपचाप स्थानांतरण लेकर नाम की वसूली से ही काम चला लेते हैं उससे 2 फायदे होते हैं एक तो पुलिस मैं उनके खुद उठा हुआ तूफान ठंडा हो जाता है दूसरी तरफ लोकायुक्त का काम सभी सरकारी विभागों में ही पड़ता है। तो वहां के अधिकारियों से संबंध बन जाने के कारण उस व्यवस्था का जिंदगी भर फायदा उठाते रहते हैं। तो जब चारों तरफ ही सब भ्रष्ट बैठे हैं तो ईमानदारी की उम्मीद जनता किससे और कैसे करेगी?
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